कबीरदास का जीवन परिचय | Biography of Kabirdas 2022 - Latest Mahiti

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कबीरदास का जीवन परिचय | Biography of Kabirdas 2022


कबीर दास की बायोग्राफी इन हिंदी 2022

Kabir das


भक्त कवियों में कबीर का स्थान आकाश नक्षत्र के समान है। वे अंधकारमय मन को प्रकाश दिखाते हैं। कबीर के बारे में मान्यता है कि इनका जन्म 15 ज्येष्ठ शुक्ल को संवत् 1475 को काशी में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। कहा जाता है कि जगद्गुरु रामानन्द के आशीर्वचन से विधवा ब्राह्मणी को गर्भ ठहर गया था, परन्तु लोक-लाज के भय से बालक के जन्म के उपरांत वह उसे लहरतारा नामक तालाब के पास फेंक गयी थी। जहां से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति गुजर रहे थे। उन्होंने बच्चे के रोने की आवाज सुनी। बच्चे के पास गये। उनका मन ममता से पसीज गया। वे निःसंतान थे। बच्चे को ले गये और लालन-पालन करना शुरू किया। उनका नाम कबीर पड़ा। 

कबीर के विचार 

कबीर पढ़े-लिखे न थे। वे अपने माता-पिता के कपड़े बुनने का कार्य किया करते थे। करघे पर बैठकर कपड़ा बुनते थे और भक्ति-भाव में भरकर पदों की रचना करते थे। उनके कहे हुए पदों को लोग शौक से सुना करते थे, कुछ कंठस्थ कर लेते थे, कुछ लिख लिया करते थे। उनकी संगति में बैठने वाले हिन्दू-मुस्लिम दोनों सम्प्रदाय के लोग हुआ करते थे। उनकी संगति में बैठने वाले ही लोग उनके शिष्य बनते गये। ये कबीर पंथी कहलाये। ये कबीर पंथी आज भी भारत में बड़ी संख्या में है। उनकी उपासना और पूजा पद्धति अन्य धर्म-सम्प्रदाय के लोगों से अलग हैं। 

कबीर के समस्त पदों का संकलन 'बीजक कहलाता है। बीजक के 3 भाग है- रमैनी, सबद, साखी

बाह्य आडम्बर का विरोध  

कबीरदास धर्म के बाह्य आडम्बर के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बाह्य आडम्बर को लेकर अपने दोहों में समान रूप से फटकार सुनायी है। देखें इन पदों को —

पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहाड़, 

घर का चकिया कोई न पूजै, जाके पीसा खाय ।

मूर्तिपूजा को बाह्य आडम्बर मानने के साथ-साथ कबीर ने मुसलमानों के लिए भी कहा है–

कांकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लियो बनाय, 

तापे मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा भयो खुदाय ।

 

      कबीर फक्कड़ कवि कहे जाते हैं। उनके मन में जो भी आता था, कह जाते थे। वे निराकार ब्रह्म के उपासक थे। वे ईश्वर को घट-घट में, प्रत्येक मन में बसा हुआ बताते थे तथा उसके लिए मंदिर-मस्जिद में जाना आवश्यक न मानते थे। 

कबीर की भाषा शैली 

कबीर पढ़े-लिखे न थे। वे स्वभावतः साधु-संत थे, ईश्वर भजन और नीतिपरक बातें वे गाकर लोगों के सद्गुण का संदेश देते थे। उनके गाए भजन और दोहे उनके शिष्य कंठस्थ कर लिया करते थे जिसे बाद में लिखकर संग्रहित किया गया। 

कबीर घुमक्कड़ स्वभाव के थे। वे एक स्थान से दूसरे स्थान सत्संग उद्देश्य से जाया करते थे और काफी काफी दिन वहां ठहर जाते थे, जिसकी वजह से उनकी बोली में वहां की बोली का प्रभाव आ जाना स्वाभाविक रूप से उनके पदों में परिलक्षित होता है। उनकी भाषा में खड़ी बोली मूलत रूप से है, साथ ही ब्रज, अवधी, मगधी और बुन्देली का भी कहीं-कही समावेश है।

भाषा में व्याकरण नियमों का कोई सहारा नहीं लिया गया है एक पद से दूसरे पद के भावों को बयन्त करने में जो कुछ आ गया, उसे ही पद का रूप दे दिया। 

उनकी भाषा में खड़ी बोली की प्रचुरता है। वे साधु-संगति के लिए जगह-जगह घूमते रहते थे, जिसकी वजह से उनकी भाषा में कई प्रदेशों की भाषाओं का सम्मिश्रण मिलता है। 

कबीर के गुरु कबीर ने अपने जीवन में गुरु को सबसे अधिक महत्व दिया है। उनके अनुसार बिना गुरु के ज्ञान नहीं मिल सकता। वे गुरु की महत्ता ईश्वर के तुल्य मानते हैं–

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पांव, 

बलिहार गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय। 

कहा जाता है कि उन्होंने अपना गुरु रामानन्द जी को बनाया। वे एक दिन पंच गंगा घाट की सीढ़ियों पर बहुत प्रातःकाल जाकर लेट गये थे। जहां से प्रातः बेला में हर दिन रामानन्द जी गंगा स्नान के लिए जाया करते थे। सीढ़ियों से उतरते समय रामानन्द जी का पैर कबीर के शरीर से स्पर्श हो गया। वे झट कह पड़े 'राम-राम'! गुरु के उस राम-नाम गुरु मंत्र को कबीर ने अपना लिया और खुद को रामानन्द का शिष्य कहने लगे। उन्होंने अपने एक दोहे में कहा भी है 

हम काशी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये । 

काशी में अपना जन्म होने की बात कहते हुए कबीर कहते हैं कि उन्हें चेताने, अर्थात् ज्ञान देने का कार्य स्वामी रामानन्द ने किया। 

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कबीर का पैथ 

कबीर की मृत्यु के बारे में जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि उनके शव के पुष्पों में बदल जाने के बाद उनके हिन्दु-मुस्लिम शिष्यों ने आधा-आधा बांटकर अपने-अपने ढंग से अंतिम संस्कार कर दिया था। गुरु के प्रति शिष्यों की मद्य आस्था आगे भी जारी रही। उनके पंथ के मानने वाले आज भी पूरे भारत में बड़ी संख्या में हैं, जो कबीर पंथी कहलाते है। वे कबीर के बताए नियमों और आचार-विचार पर चलते है। बाहरी आडम्बर से दूर रहते हैं। 

इस प्रकार हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक कबीर, मृत्यु उपरान्त भी अपना आदर्श छोड़ गयें, जो कबीर पंथियों के रूप में हमारे सामने परम्परा का निर्वाह कर रहे है।

कबीर दास देह त्याग 

कबीर ने 119 वर्ष की अवस्था में मगहर नामक स्थान पर प्राण त्याग किया। उस समय उनके हिन्दू-मुस्लिम दोनों अनुयायी उपस्थित थे। शव संस्कार को लेकर उनमें आपस में विरोध होने लगा। हिन्दू उनके शव को अग्नि को समर्पित करना चाहते थे और मुसलमान दफनाना चाहते थे। जब उनके शव को देखा गया तो शरीर पुष्पों में बदल चुका था। जिसे आधा-आधा दोनों धर्म के लोगों ने बांट लिया तथा अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अन्तिम संस्कार किया।

                     

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